Sunday 19 April 2020

Eklavaya "The Father's of morden ARCHERY"

जब भी महाभारत पढ़ा जाता हे तो हम कर्ण और एकलव्य के बारे में पढ़कर जरुर ही व्यथित होते हे , कर्ण और एकलव्य दोनों योग्य होने के बावजूद द्वापरयुगीन भारतीय वर्णव्यवस्था के शिकार थे. यह वह दो योद्धा थे जिनकी ख्याति भारतीय पुराणों में महादानी के रूप में होती है । परन्तु में इन्हे गुमराह धर्मयोद्धा भी कहूंगा ।
इन दोनों महावीर को लेकर अनेको लोगो के अनेको मत होंगे. पर आज में आपको एकलव्य के बारे में कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत करूंगा उस रोचकता से पूर्व में आपको एक रहस्य भी बताना चाहूंगा वह है कि स्वयं निषाद राज एकलव्य ही वर्तमान तीरंदाजी के जनक है ।
आज की कला और विद्ध्य इन्हीं की देन है । पुरातन काल में श्री राम , अर्जुन , कर्ण , भीष्म जैसे प्रतापी धनुर्धारी हुए परन्तु यह गौरव केवल मात्र एकलव्य को जाता है । मेरा विश्वास है आज में इसी रहस्य से में आपको रूबरू करा पाऊंगा  ।
एकलव्य वहीं है जिन्होंने कुरूवंश के गुरु द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर दे दिया था ।
यह वही एकलव्य है जिन्होंने 17 वार यादव वंशी श्री कृष्ण की सेना को पराजित किया था ।
१-कौन थे एकलव्य ?
श्रृंगवेरपुर राज्य प्रयाग के समीप वसा एक छोटा सा परन्तु आदिकाल से संपन्न राज्य । यह वही राज्य है जिसमें श्री राम ने अपने वनवास काल में विश्राम किया था । यहां निषाद  संप्रदाय के लोग रहते थे वर्तमान में इस राज्य के कुछ हिस्से उत्तर प्रदेश तो कुछ बिहार में मिलते है । त्रेता युग में श्रृंगवेरपुर राज्य के राजा निषाद राज गुह थे ।
यह वही गुह है जो श्री राम के बाल सखा थे जिन्होंने वशिष्ठ मुनि के यहां श्री राम के साथ अपनी शिक्षा प्राप्त की थी । निषाद राज ने श्री राम को गंगा पार करा कर महामुनि भारद्वाज ऋषि के यहां लेकर गए थे गोस्वामी तुलसी दास जी रामायण में लिखते है भारद्वाज मुनि ने निषाद राज को श्री राम के बराबर आसान दिया इन्हीं भारद्वाज मुनि के पुत्र द्वापर युग में गुरु द्रोणाचार्य हुए जिन्होंने निषाद राज गुह के ही वंशज एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उनका अंगूठा मांग लिया था । त्रेता युग में द्रोणाचार्य के पिता ने वर्णव्यवस्था से ऊपर उठ एकलव्य के पूर्वजों को समान आसान दिया वहीं उनके पुत्र द्रोणाचार्य आदिकाल काल तक शिक्षा में किए गए प्रथम पक्षपात के पाप का भागी हुए । यह एक विचित्र विडंबना ही मात्र है । में लेख में आगे प्रयास करूंगा कि आपको बता सकूं क्यो गुरु द्रोणाचार्य ने इस प्रक्षपात के कलंक को स्वीकार किया ।
एकलव्य श्रृंगवेरपुर राज्य के निषादराज हिरण्यधनु व रानी सुलेखा के पुत्र थे । इनके बाल काल का नाम अभिद्युम्न था शुरुवात में माता-पिता उसे प्रेम से “अभय” नाम से बुलाते थे । जब अभय पाँच वर्ष का था तब उसकी शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई. यही धनुर्विद्या में अद्भुत कला और रुचि के लिए उनका नाम अभिद्युम्न से एकलव्य हुवा । और उन्होंने धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करने का प्रण लिया ।
२-गुरु द्रोणाचार्य ने क्यो एकलव्य का अंगूठा मांगा ?
निषाद वंश और मगध साम्राज्य के पूर्वापार घनिष्ट संबंध थे. उस समय मगध साम्राज्य का राजा जरासंध था । गुरु द्रोणाचार्य जानते थे जरासंध शःशत्र क्षतीय राजाओं को बंधी बनाने का संकल्प लिया है । और उसी की प्रेरणा से एकलव्य यहां आया है । एकलव्य मगध साम्राज्य के विस्तार हेतु धनुर्विद्या प्राप्त करना चाहता है । जिसका दुरुपयोग वह हस्तनापुर के विरूद्ध कर सकता था । दूसरा यह कि गुरु द्रोणाचार्य अपने प्रण से बंधे थे । उन्होंने भीष्म पितामह को केवल कुरूवंश पुत्रों को शिक्षा देने का प्रण लिया था । अनेक लोग इसे पक्षपात और वर्णव्यवस्था से जोड़ कर देखते है । जो प्रथम दृष्ठी में स्वाभाविक ही ज्ञात होती है ।
३- श्री कृष्ण और एकलव्य का युद्ध
जरासंध भगवन कृष्ण के मामा कंस का ससुर था, और जब भगवान कृष्ण कंस का वध करते हे तो जरासंध तिलमिला उठता हे और यादवो के खिलाफ युद्ध शुरू कर देता हे. एकलव्य के निषाद वंश और जरासंध के मगध साम्राज्य के पूर्व से ही घनिष्ट संबंध थे. । एकलव्य  हतबल हो जाता है । और वो यादव सेना को लगभग ध्वस्त कर देता हैं ।  एकबार जब युद्ध में यादव वंश में हाहाकर मचानेवाले और दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को भगवान् कृष्ण ने देखा तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ था ।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों शुर यादव वंशी योद्धाओं को हराने में सक्षम था,  १७ वे या एकलव्य के आखरी युद्ध में भगवन कृष्ण ने कृष्णनीति से एकलव्य का वध किया था ।
४- वर्तमान तीरंदाजी के जनक
धनुर्विद्या युगों युगानतर पुरानी है सत्य युग से लेकर कलयुग तक कई धनुर्धारी हुए परन्तु वर्तमान धनुर्विद्या के जनक का गौरव निषाद राज एकलव्य को जाता है ।
द्रोणाचार्य को अपने अंगूठे की गुरुदाक्षिना देने के बाद कुमार एकलव्य अपने गृहराज्य में पिता हिरण्यधनु के पास चला जाता हे. एकलव्य अपने अनन्य-साधनापूर्ण कौशल से अंगूठे के बिनाही धनुर्विद्या मेँ फिरसे प्रविन्य प्राप्त कर लेता है. कई साल बित जाते हे, राजा हिरन्यधनु की मृतु हो जाती हे. पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य ही श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता है, और अपने पिता की तरह एकलव्य भी अमात्य परिषद की सहायता से वो न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और साथही एक असाधारण नौसेना भी गठित करता है.
एकलव्य की मगध साम्राज्य से संधि वंशानुगत थी एकलव्य ने जरासंध की और से कई युद्ध किए और
अनेक राजाओं को अपने पराक्रम से बंधी बनाकर जरासंध के सामने प्रस्तुत कर दिया करता था ।
उसका अंतिम युद्ध श्री कृष्ण के साथ हुआ । श्री कृष्ण ने एकलव्य को दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए देखा उन्होंने एकलव्य की इस अद्भुत कोशाल और युद्ध कला से प्रभावित हुए । जब श्री कृष्ण ने एकलव्य का बध किया तो उससे प्रशन्न हो उसे वरदान दिया । की तुम्हारी विद्या आदिकाल तक स्मरण की जाएगी और वर्तमान में देखा जाए तो वहीं कला ओलंपिक या अन्य स्तर पर देखी जाती है । जब तीरंदाजी में अंगूठे का उपयोग ना कर ४ उंगलीयो से बल प्रदान किया जाता है । और लक्ष्य साधा जाता है ।
इतिहास ने एकलव्य को अनदेखा कर शायद उसके साथ अन्याय किया था । पर वर्तमान ने जानते- न जानते हुए एकलव्य का सम्मान किया है ।
आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है।एकलव्य की धनुर्विद्या आज भारत से दूर सातो समुद्रोपार भी विख्यात हैं यही कारण है कि वर्तमान युग की तीरंदाजी के जनक निषाद राज एकलव्य थे । ना कि saxton temple pope  जो कि वर्ष 1875 से 1926 अमेरिका के एक डॉक्टर थे उन्हें मॉर्डन archery की तकनीकि का पितामह कहा जाता है । परन्तु वह लोग भारत के इतिहास से परिचित नहीं इस तकनीकि के उद्गम का इतिहास 100 वर्ष पुराना नहीं बल्कि यह तो 10000 वर्षों से भारत की तकनीकि थी । जो एक पक्षपात की घटना से प्रारंभ होकर इतिहास में कही लुप्त हो गई ।
धन्यवाद !!
स्त्रोत्र :-
विष्णु पुराण , वायु पुराण , रामायण , महाभारत
By:- Anurag Sharma
Email :- sharmaanu411@gmail.com

No comments: