Saturday 18 April 2020

क्यो श्री राम ने सीता जी का त्याग किया ?


वैवस्वतमनु के पुत्र इक्ष्वाकु अयोध्या के राजा थे । पुराणों में कहा गया है कि वह प्रथम सूर्यवंशी राजा थे। इन्होंने ही अयोध्या में कोशल राज्य की स्थापना की थी। इनके सौ पुत्र थे। इनमें से पचास ने उत्तरापथ में और पचास ने दक्षिणापथ में राज्य किया।
सतयुग के प्रारंभ से लेकर त्रेता युग के अंत तक समस्त भारत वर्ष इक्ष्वाकु वंशजों के अधीन रहा ।
यही कारण था । जब श्री राम ने बाली का वध किया तब बाली ने पूछा कि आपने किस अधिकार से मेरा बध किया तब श्री राम ने अपने प्रतापी वंश का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह समस्त भूमि सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु की है ।
और में उसी प्रतापी वंश का वंशज हूं उसी अधिकार से मैने तुम्हारा बध किया ।
कहते हैं कि इक्ष्वाकु का जन्म मनु की छींक से हुआ था। इसीलिए इनका नाम इक्ष्वाकु पड़ा। इनके वंश में आगे चलकर मांधाता ,रघु, दिलीप, अज, दशरथ और राम जैसे प्रतापी राजा हुए।
रावण पर विजय प्राप्त उपरांत जब श्री राम अयोध्या आए तो भरत ने उन्हें उनका राज्य वापिस कर दिया ।
यह वही राज्य था जिसकी लालसा में भरत की मां कैकई ने श्री राम को 14 वर्षों का बनवास दिया था चूकी श्री राम अपने बनवास काल में थे तो भरत कार्यवाहक के रूप में राज्य के कार्यों को श्री राम की चरण पादुका रख संपादित किया करते थे ।
बनवास पूर्ण कर श्री राम जब अयोध्या आए तो उनका भव्य स्वागत हुआ वहीं श्री राम का राज्य अभिषेक भी अत्यंत आनंद से हुआ पर यहां एक विजित्र घटना देखने को मिलती है तुलसी दास जी लिखते है ।
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥११ ख॥
भावार्थ : श्री राम के बायीं ओर रूप और समस्त
गुणों से परिपूर्ण रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं।
उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं॥११ (ख)॥
इससे यह साबित होता है श्री राम का जानकी जी के साथ राज्य अभिषेक होना एक विरल घटना थी जो उस वंश या काल खंड में पहले कभी नहीं हुई जिसे देख कर सभी माताएं बहुत प्रसन्न हुई और जानकी जी को देख उन्होंने अपने जीवन को सफल समझा वहीं आगे चल कर गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते हैं ।
जनकसुता समेत रघुराई।
पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे।
नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥२॥
भावार्थ : श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ।
तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया।
आकाश में देवता और मुनि 'जय, हो, जय हो' ऐसी पुकार करने लगे॥२॥
यह जय घोष एक अपरिवर्तित असामान्य अवधारण के अंत का था ।
वह अवधारणा थी  समाज में महिलाओ का स्थान उस काल खंड में वीर महिलाएं भी अपने पति की दासी बन जीवन यापन करती थी । राज्यकीय कार्यों व रण नीतियों से उन्हे योग्य नहीं समझा जाता था । उन्हें केवल राज्य महल के आनंद में उलझा कर रखा जाता था ।
गोस्वामी तुलसी दास जी की रामायण के अनुसार कई बार संबोधन आता था वह पति को *नाथ* कह संबोधित करती थी । क्योंकि उस काल खंड में पत्नी युद्ध में प्राप्त विजय श्री की एक संधि हुआ करती थी ।
परन्तु श्री राम के राज्य संभालते ही इस परंपरा का अंत हुआ राम राज्य में महिलाओ को भी उतना ही सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती थी जितनी पुरुषों को गोस्वामी तुलसी दास जी भी राम राज्य का वर्णन करते हुए उत्तर कांड में लिखते है l
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥१॥
भावार्थ : 'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते।
सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥१॥
आर्थात राम राज्य में सभी वर्गो और जातियों में समानता थी ।
समानता के अधिकार को संवैधानिक तौर पर मान्यता भले आज़ाद भारत में मिली हो परन्तु इसके शिल्पकार श्री राम थे ।
आज के आज़ाद भारत में महिलाओं का स्थान पुरुषों से तनिक भी कम नहीं आज की महिलाएं सक्षम भी है और स्वलंभी भी ।
मेरे विचार में इस परम्परा के जनक श्री राम थे उन्होंने समाज में महिलाओं को अपना स्थान बताने के लिए जानकी जी को सदैव साथ रखा ।
आगे चल कर कई महिला प्रशासक हुई परन्तु यह सीता की के उस बलिदान से ही संभव हुआ ।
जो उन्होंने श्री राम की अज्ञा से त्याग और पुनः बनवास स्वीकार करना पड़ा ।
किसी असामान्य परंपरा यूंही नहीं लुप्त हो जाती श्री राम के राज्य में भी सीता जी के शासन नीति से प्रेरित होकर राज्य की महिलाएं अपने पर होने वाले अत्याचार के विरूद्ध उठ खड़ी होने लगी । अपने पुरुषार्थ पर अहंकार करने वाले कुछ तुच्छ पुरुषों को अपने एकछत्र पुरुषार्थ के पतन का बोध हो गया वह हिंसा पर उतारू होने लगे और इसे न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा और महिलाओ के प्रति हिंसक ही नहीं वह उन्हें कलंकित भी करने लगे ।
सीता जी भी उसी तुच्छ विचारधारा के कलंक का शिकार हुई । वह मर्यादा पुरुषोत्तम की भर्या ही नहीं राजा की सहभागी भी थी राजकीय कार्यों में उनकी सहभागिता हमेशा रहती थी यही कारण था कि उन्होंने राज्य में किसी प्रकार की अराजकता न फैले और महिलाओ पर अत्याचार ना बड़े को ध्यान में रख कर उस कलंक को सह ह्यदय स्वीकार किया ।
उनका उद्देश्य समाज यह यह संदेश भी देना था कि महिला अवला नहीं है ।
वह परिवार के पालन पोषण के लिए पूर्णता सक्षम भी है और समर्थ भी ।
उन्होंने श्री राम से त्याग उपरांत अपने पुत्रों को परम पराक्रमी और बुद्धिमान बनाया जो भविष्य में इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा बने वह थे लव , कुश ।।
प्रथ्वी पर भगवान का अवतरण किसी विशेष उद्देश्य के तहत ही होता है द्वापर युग के अंत में श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए कहा था
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भावार्थ :  हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥
अत: अधर्म रूपी मानसिकता और अप्राकृतिक परंपराओं का दमन करना भी परमेश्वर के अवतरण का उद्देश्य होता है ।
कुछ बुद्धि जीवी श्री राम द्वारा सीता जी के त्याग को उनकी राज्य की महत्वकांक्षा से जोड़ कर देखते तो कुछ उनके चरित्र पर प्रश्न भी उठाते है ।
परन्तु परमात्मा के अवतरण के उद्देश्य केवल अधर्मियो का नाश करना नहीं अपितु अधर्म से जुड़ी उंन समस्त शाखाओं को तोड़ना भी होता है ।
जिनके बल पर हम किसी समर्थ राष्ट की कल्पना नहीं कर सकते ।
By :- Anurag Sharma
sharmaanu411@gmail.com

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