रामायण के अनेक पात्रो का वर्णन किया गया है जिसमे एक नाम मंथरा भी आता है वैसे तो यह एक कलंकित और अच्छा नहीं माना जाता लेकिन यही एक ऐसा पात्र है जिसके बिना पूरी रामायण अधूरी है और इसके बिना पूरी रामायण का अस्तिव नजर नहीं आता है| बाल्मीकि रामायण में इसके बारे में ज्यादा जिक्र नहीं किया गया शायद बाल्मीकि जी को इस पर ज्यादा प्रकाश डालने के जरुरत नहीं पड़ी रामायण इसका जिक्र राज्यभिषेक के समय में ही आता है | वैसे भी रामायण राम कि कथा है और उसमे अन्य पात्रो पर प्रकाश डालने का कोई औचित्य भी नहीं रह जाता| अब प्रश्न उठता है कि मंथरा कौन थी और वो आयी कहाँ से थी क्यों उसने राम को राजा बनने से रोका क्यों वह जिस राज महल की दासी की मर्यादा तोड़ रानी की माँ बनने कि कोशिश करती है और समाज में एक कलंकित नारी के रूप में ही याद की जाती है| क्या उसकी द्वारा ऐसा करना कोई मज़बूरी थी या उससे ऐसा करने के लिए किसी के द्वारा कहा गया था क्यों इस तरह तिरस्कृत जीवन जीने के लिए मज़बूरी हुई अत: अगर इस सम्बन्ध में वाल्मीकि रामायण की माने तो मंथरा एक गंधर्व कन्या (अप्सरा) थी जिसे इंद्र ने राम जी को वनवास हो इसके लिए ही पहले से ही कैकयी के पास भेज दिया था।
मंथरा का जन्म
एक अन्य कथा के अनुसार मंथरा एक कुबड़ी औरत जो झुककर चलती थी वो जन्म से कुबड़ी नहीं थी| कहा जाता है कि वो पहले सामान्य तरीके से चल-फिर सकती थी | एक दिन उसने कुछ ऐसा पी लिया जिससे वो ज़िंदगी भर के लिए कुबड़ी रह गई. वो कौन-सा पेय पदार्थ था जिसे पीकर मंथरा की रीढ़ की हड्डी हमेशा के लिए झुक गई? कैकेयी के राजा अश्वपति का एक भाई था जिसका नाम वृहदश्व था| उसकी विशाल नैनों वाली एक बेटी थी जिसका नाम रेखा था, वह बचपन से ही कैकेयी की अच्छी सहेली थी| वह राजकन्या थी और बुद्धिमति थी, परंतु बाल्यावस्था में उसे एक बीमारी हुई| इस बीमारी में उसका पूरा शरीर पसीने से तर(भींग) हो जाता था और शरीर भींगने के साथ ही उसे बड़ी जोर की प्यास लगती थी| एक दिन प्यास से अत्यंत व्याकुल हो उसने इलायची, मिश्री और चंदन से बनी शरबत को पी लिया| उस शरबत के पीते ही वह त्रिदोष से ग्रस्त हो गई, उसके शरीर के सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया | उसके पिता तथा अन्य सगे-संबंधियों को लगा कि शायद उसकी मृत्यु हो जाएगी, तत्काल ही उसके पिता ने प्रसिद्ध चिकित्सकों से अपनी लाडली बेटी की चिकित्सा करवाई| इस उपचार का प्रभाव यह हुआ कि वह मृत्यु से बच गई, उसके शरीर के अन्य अंग काम करने लगे परंतु उसकी रीढ़ की हड्डी सदा के लिए टेढ़ी हो गई. इसके अलावा उसके दोनों कंधे और गर्दन झुक गए| इस कारण से उसका नाम कूबड़ी मंथरा पड़ गया | उसके इस शारीरिक दुर्गुण के कारण वह आजीवन अविवाहित रही. जब कैकेयी का विवाह हो गया तो वह अपने पिता की अनुमति से कैकेयी की अंगरक्षिका बनकर उसके राजमहल में रहने लगी|
मंथरा क्यो चाहती थी भरत राजा बने
एक बार नारद जी चक्रवर्ती महाराज दशरथ के पास आये और उनसे राजा कैकय (वर्तमान काकेशिया व काकेशस और किसी किसी के मत से काश्मीर) की लडकी कैकेयी की सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए बोले कि उसकी हस्तरेखाओ से सिद्ध होता है कि वह एक बड़े तपस्वी धर्मात्मा पुत्र की माता होगी, इससे विवाह कीजिये, पुत्र होगा । अब राजा को चिन्ता हुई कि उससे विवाह क्योंकर हो । धात्री योगिनी ने इसका बीड़ा उठाया । योगिनीने केकय देश में आ, कैकेयी का अपने ऊपर विश्वास जमा, उससे दशरथ महाराज के रूप, तेज, बल, ऐश्वर्य की प्रशंसा की और उसको रिझा लिया ।इस बात का समाचार जब राजा केकय तक पहुंच तब उन्होचे सभायें गर्याचार्य इत्यादि मुनियो से सम्मति लौ, गर्गजी महान् ज्योतिष के ज्ञात थे ,उन्होंने ने रावण के वध की भविष्य कथा उनको सुनायी। तब केकयराज ने गर्गजी के द्वारा चक्रवर्ती महाराज़ दशरथ के पास यह सन्देश (समाचार) भेजा कि यदि आप यह प्रतिज्ञा करे कि कैकेयी का पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होगा तो फलदान कर दिया जाय, राजा यह समाचार सून सोच मे पड गये, वशिष्ठ आदि को बुलाकर सम्मति ली । वशिष्ठजी ने सलाह विवाह कर लेने की दी यह कहते हुए कि अभी उसकी चिन्ता क्या करना , पुत्र धर्मज्ञ होगा इससे वह कोई अडचन न डालेगा। अतएव ब्याह हुआ और मंथरा दासी कैकेयी के साथ अवध आयी ।
मंथरा ने क्यो कैकई को राम के बनवास हेतु प्रेरित किया ?
लोमश ऋषि जो एक अनुभवी ऋषि कहे जाते थे वो एक बार श्रीराम वनवास के पश्चात् लोमश ऋषि अवध आये। तब लागो ने उनसे प्रश्न किया कि रामचन्द्र जी में योगी और मुनि रमण करते है, उनके राज्य में मन्थरा ने क्यों विघ्न डाला? उत्तर में उन्होने उसकी पूर्वजन्म की कथा सुनायी जो यों है । यह प्रह्लाद के पुत्र विरोचन की कन्या थी । जब विरोचन ने देवताओ को जीत लिया तब देवताओ ने विप्ररूप धरकार उससे दान में उसकी शेष आयु मांग ली । दैत्य बिना सरदार के हो गये । तब मन्थरा ने देत्योकी सहायता की, देवता हारकर इन्द्र के पास गये, उन्होने स्त्री का वध करने से इनकार किया। तब वे भगवान् विष्णु की शरण गये । वे शस्त्र धारण किये हुए समरभूमि में आये और इन्द्र को उसके मारने की आज्ञा देते हुए कहा कि पापिनी आततायिनीका वध उचित है । आज्ञा पाकर इन्द्र ने वज्र चलाया ।वह चिल्लाती हुई पृथ्वीपर आ गिरी, कूबड़ निक्ल आया । घरपर सबने उलटे उसी को बुरा -भला कहा । मंथरा पीडासे व्यथित क्रोध में भरी रोती बरबराती हुई, कि विष्णु पापात्मा हैं हमको इन्द्र से मरवाया, पहले भृगु की स्त्री को मारा, फिर वृंदा को छला, नृसिंह हो प्रह्लाद के पिता को छला; इसी तरह सदैव कपट व्यवहार करके देव-कष्ट को दूर किया करते हैं, उसी दशामें मर गयी । मरते समय विष्णु भगवान् और असुरो से (क्योंकि इन्होने समर में इसका साथ छोड दिया था और उनकी स्त्रियो ने उलटे इसी को चार बातें सुनायी थी ) बदला लेने की वासना रही; इससे वह दूसरे जन्म मे कैंकेयी की दासी हुई । उस पुराने वैर निकालने के लिये उसका जन्म हुआ, क्योकि उसने मरते समय मन में इच्छा करी थी कि भगवान् ऐसी जगह जन्म दें कि उनके समीप रहकर उनके कार्य मे विघ्न डालूँ । मंथरा नाम पडा क्योंकि यह पूरी मंथर है तीन जगह से टेढी है और मन्दबुद्धि है ।
वात्सल्य से भरी धाय के रूप में एक अभागिन माँ
मंथरा कैकेयी और राजा दशरथ के विवाह के दिन ऐसे खुश होती है जैसे उसकी खुद की बेटी की शादी हो कैकेयी के विवाह के दिन मंथरा के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे उस दिन वो इतनी खुश थी कि बयाँ नहीं कर सकती वैसे भी पुत्री के विवाह में ढेरों काम होते है, कैकेयी को हल्दी चन्दन का लेप लगा कर नहलाना था,फिर अंगराग लगाना था पुष्प सज्जा करनी थी जिससे वह अपूर्व सुंदरी लगे और राजा दशरथ अपनी अन्य रानियों को भूल जाएँ| और ये बात सोच कर और ज्यादा खुश थी कि महराज दशरथ की अन्य रानियाँ निस्संतान थीं इसलिए निश्चित था कि कैकेयी का पुत्र राजा और कैकेयी राजमाता बनेगी पर सारी प्रसन्नता पर बेटी की विदाई की पीड़ा ह्रदय के टुकड़े कर रही थी| अंततः वह मंथरा की ही पुत्री तो थी अपनी नहीं तो क्या उसके उसका लालन पालन तो अपनी पुत्री जैसे ही किया था वैसे भी राज परिवार की संताने तो माँ की नहीं धाय की गोद में ही पल कर बड़ी होती हैं| ये सोच सोच कर बहुत ही खुश थी कि आज उसकी पुत्री का विवाह है जिससे उसे अगाध प्रेम था जिस पर वह अपनी जान छिड़कती थी और उसकी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थी| कैकेयी के प्रति मंथरा का अगाध प्रेम देख कर महाराज अश्वपति ने मुख्य धाय के रूप में उसे रानी कैकेयी के साथ ही उसकी देख भाल के लिए अयोध्या भेज दिया| अवध की दोनों बड़ी रानियों ने कैकेयी का खुल कर स्वागत किया, यह देख कर मंथरा को बहुत प्रसन्नता हुई| लेकिन कुछ ही दिनों बाद मंथरा ने अनुभव किया कि महाराज निस्संदेह प्यार तो नयी रानी से करते हैं पर किसी समस्या पर विचार विमर्श बड़ी रानियों से ही करते हैं अर्थात वो शायद कैकेयी को परिपक्व नहीं समझते और जब वे अस्वस्थता या किसी और कारण से कष्ट में होते हैं तो उन्हें शांति कौशल्या के पास ही मिलती है अत ये सब सोच सोच कर मंथरा का अनुभवी मन अपनी स्वामिनी के भविष्य के लिए सशंकित होने लगा और इसके लिए उसने कैकेयी को समझाया कि केवल अपने पति की प्रेयसी बनने से काम नहीं चलता महाराज के दुःख सुख की संगिनी बनो नहीं तो बड़ी रानियों जैसी प्रतिष्ठा कभी नहीं पा सकोगी और पुरुष प्रकृति का भरोसा नहीं होता कल महल में चौथी रानी भी आ सकती है|
कैकेयी को महाराज के साथ युद्ध में भेजना
कहा जाता है कि एक बार दशरथ के पास देवों की और से देवासुर संग्राम में सम्मिलित होने का निमंत्रण आया मंथरा ने कैकेयी को राजा दशरथ के साथ युद्ध में जाने के लिए उकसाया ताकि वह वह राजा कि नजर में चढ़ जाये और वह उसे और रानियों से ज्यादा महत्व दे इस कर कैकेयीं राजा से युद्ध में जाने की हठ कर बैठी| और वैसे भी कैकेयी खुद भी एक वीरांगना थी और युद्ध कला में पारंगत थी| पर फिर भी दशरथ अपनी कोमलांगी पत्नी को युद्ध में नहीं ले जाना चाहते थे पर कैकेयी का कहना था कि पत्नी पति की सह धर्मिणी होती है| हठीली सहधर्मिणी के आगे उनकी एक न चली और कैकेयी युद्ध में चली गयी और वहां विषम स्थितियों में उसने अपने पति की प्राणों की रक्षा भी की| इस लिए महाराज कैकेयी के ऋणी हो गए इस तरह से यह मंथरा की पहली विजय थी वह सारे नगर में कहती फिरती थी कि अन्तःपुर का क्या है उसे तो कोई भी स्त्री सम्भाल सकती है पर मेरी स्वामिनी ने अपने रक्षक के प्राणों की रक्षा की| उस समय ये शब्द एक दासी के नहीं गर्विणी माता के थे |
मंथरा का पष्यपात और राम द्वारा स्वीकारना
आज चौदह वर्ष बाद द्वार पर आहट सुन कर मंथरा भयभीत हो उठी –अवश्य राम मुझे मृत्युदंड देने आये हैं उन्हें लगा हो गा कि इस पापिनी को जीने का अधिकार नहीं है | मुझे भी मृत्यु का भय नहीं है , मैंने मृत्यु से अधिक भयावह जीवन जिया है , बस मरने से पहले एक बार राम और सीता की मोहक छवि देखना चाहती हूँ लक्ष्मण से क्षमा माँगना चाहती हूँ , तभी कुटी का द्वार खुला हवा का ताजा झोंका अन्दर आया और गंभीर पुरुष स्वर गूंजा “माँ अपने राम का प्रणाम स्वीकार करो ” लज्जित मंथरा संकोच से और सिमट गयी फिर नारी स्वर सुनाई दिया ” मुझे अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद दीजिये माँ “यह स्वर सीता का था | वर्षों से उपेक्षिता मंथरा राम सीता का स्नेह पा कर रो पड़ी उसका अपराधबोध आंसुओं के साथ बह गया और वह धाय माँ से माँ के पद पर प्रतिष्ठित हो गयी | जब हम किसी तथ्य को चाहे वह सत्य हो या असत्य या आंशिक सत्य बिना जांच किये स्वीकार कर लेते हैं तो वह हमारी ‘अवधारणा ‘ बन जाती है ।
Special thanks
:- फूल सिंह
Sunday, 5 April 2020
मंथरा-एक कलंकित नारी
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