Sunday 19 April 2020

Eklavaya "The Father's of morden ARCHERY"

जब भी महाभारत पढ़ा जाता हे तो हम कर्ण और एकलव्य के बारे में पढ़कर जरुर ही व्यथित होते हे , कर्ण और एकलव्य दोनों योग्य होने के बावजूद द्वापरयुगीन भारतीय वर्णव्यवस्था के शिकार थे. यह वह दो योद्धा थे जिनकी ख्याति भारतीय पुराणों में महादानी के रूप में होती है । परन्तु में इन्हे गुमराह धर्मयोद्धा भी कहूंगा ।
इन दोनों महावीर को लेकर अनेको लोगो के अनेको मत होंगे. पर आज में आपको एकलव्य के बारे में कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत करूंगा उस रोचकता से पूर्व में आपको एक रहस्य भी बताना चाहूंगा वह है कि स्वयं निषाद राज एकलव्य ही वर्तमान तीरंदाजी के जनक है ।
आज की कला और विद्ध्य इन्हीं की देन है । पुरातन काल में श्री राम , अर्जुन , कर्ण , भीष्म जैसे प्रतापी धनुर्धारी हुए परन्तु यह गौरव केवल मात्र एकलव्य को जाता है । मेरा विश्वास है आज में इसी रहस्य से में आपको रूबरू करा पाऊंगा  ।
एकलव्य वहीं है जिन्होंने कुरूवंश के गुरु द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर दे दिया था ।
यह वही एकलव्य है जिन्होंने 17 वार यादव वंशी श्री कृष्ण की सेना को पराजित किया था ।
१-कौन थे एकलव्य ?
श्रृंगवेरपुर राज्य प्रयाग के समीप वसा एक छोटा सा परन्तु आदिकाल से संपन्न राज्य । यह वही राज्य है जिसमें श्री राम ने अपने वनवास काल में विश्राम किया था । यहां निषाद  संप्रदाय के लोग रहते थे वर्तमान में इस राज्य के कुछ हिस्से उत्तर प्रदेश तो कुछ बिहार में मिलते है । त्रेता युग में श्रृंगवेरपुर राज्य के राजा निषाद राज गुह थे ।
यह वही गुह है जो श्री राम के बाल सखा थे जिन्होंने वशिष्ठ मुनि के यहां श्री राम के साथ अपनी शिक्षा प्राप्त की थी । निषाद राज ने श्री राम को गंगा पार करा कर महामुनि भारद्वाज ऋषि के यहां लेकर गए थे गोस्वामी तुलसी दास जी रामायण में लिखते है भारद्वाज मुनि ने निषाद राज को श्री राम के बराबर आसान दिया इन्हीं भारद्वाज मुनि के पुत्र द्वापर युग में गुरु द्रोणाचार्य हुए जिन्होंने निषाद राज गुह के ही वंशज एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उनका अंगूठा मांग लिया था । त्रेता युग में द्रोणाचार्य के पिता ने वर्णव्यवस्था से ऊपर उठ एकलव्य के पूर्वजों को समान आसान दिया वहीं उनके पुत्र द्रोणाचार्य आदिकाल काल तक शिक्षा में किए गए प्रथम पक्षपात के पाप का भागी हुए । यह एक विचित्र विडंबना ही मात्र है । में लेख में आगे प्रयास करूंगा कि आपको बता सकूं क्यो गुरु द्रोणाचार्य ने इस प्रक्षपात के कलंक को स्वीकार किया ।
एकलव्य श्रृंगवेरपुर राज्य के निषादराज हिरण्यधनु व रानी सुलेखा के पुत्र थे । इनके बाल काल का नाम अभिद्युम्न था शुरुवात में माता-पिता उसे प्रेम से “अभय” नाम से बुलाते थे । जब अभय पाँच वर्ष का था तब उसकी शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई. यही धनुर्विद्या में अद्भुत कला और रुचि के लिए उनका नाम अभिद्युम्न से एकलव्य हुवा । और उन्होंने धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करने का प्रण लिया ।
२-गुरु द्रोणाचार्य ने क्यो एकलव्य का अंगूठा मांगा ?
निषाद वंश और मगध साम्राज्य के पूर्वापार घनिष्ट संबंध थे. उस समय मगध साम्राज्य का राजा जरासंध था । गुरु द्रोणाचार्य जानते थे जरासंध शःशत्र क्षतीय राजाओं को बंधी बनाने का संकल्प लिया है । और उसी की प्रेरणा से एकलव्य यहां आया है । एकलव्य मगध साम्राज्य के विस्तार हेतु धनुर्विद्या प्राप्त करना चाहता है । जिसका दुरुपयोग वह हस्तनापुर के विरूद्ध कर सकता था । दूसरा यह कि गुरु द्रोणाचार्य अपने प्रण से बंधे थे । उन्होंने भीष्म पितामह को केवल कुरूवंश पुत्रों को शिक्षा देने का प्रण लिया था । अनेक लोग इसे पक्षपात और वर्णव्यवस्था से जोड़ कर देखते है । जो प्रथम दृष्ठी में स्वाभाविक ही ज्ञात होती है ।
३- श्री कृष्ण और एकलव्य का युद्ध
जरासंध भगवन कृष्ण के मामा कंस का ससुर था, और जब भगवान कृष्ण कंस का वध करते हे तो जरासंध तिलमिला उठता हे और यादवो के खिलाफ युद्ध शुरू कर देता हे. एकलव्य के निषाद वंश और जरासंध के मगध साम्राज्य के पूर्व से ही घनिष्ट संबंध थे. । एकलव्य  हतबल हो जाता है । और वो यादव सेना को लगभग ध्वस्त कर देता हैं ।  एकबार जब युद्ध में यादव वंश में हाहाकर मचानेवाले और दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को भगवान् कृष्ण ने देखा तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ था ।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों शुर यादव वंशी योद्धाओं को हराने में सक्षम था,  १७ वे या एकलव्य के आखरी युद्ध में भगवन कृष्ण ने कृष्णनीति से एकलव्य का वध किया था ।
४- वर्तमान तीरंदाजी के जनक
धनुर्विद्या युगों युगानतर पुरानी है सत्य युग से लेकर कलयुग तक कई धनुर्धारी हुए परन्तु वर्तमान धनुर्विद्या के जनक का गौरव निषाद राज एकलव्य को जाता है ।
द्रोणाचार्य को अपने अंगूठे की गुरुदाक्षिना देने के बाद कुमार एकलव्य अपने गृहराज्य में पिता हिरण्यधनु के पास चला जाता हे. एकलव्य अपने अनन्य-साधनापूर्ण कौशल से अंगूठे के बिनाही धनुर्विद्या मेँ फिरसे प्रविन्य प्राप्त कर लेता है. कई साल बित जाते हे, राजा हिरन्यधनु की मृतु हो जाती हे. पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य ही श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता है, और अपने पिता की तरह एकलव्य भी अमात्य परिषद की सहायता से वो न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और साथही एक असाधारण नौसेना भी गठित करता है.
एकलव्य की मगध साम्राज्य से संधि वंशानुगत थी एकलव्य ने जरासंध की और से कई युद्ध किए और
अनेक राजाओं को अपने पराक्रम से बंधी बनाकर जरासंध के सामने प्रस्तुत कर दिया करता था ।
उसका अंतिम युद्ध श्री कृष्ण के साथ हुआ । श्री कृष्ण ने एकलव्य को दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए देखा उन्होंने एकलव्य की इस अद्भुत कोशाल और युद्ध कला से प्रभावित हुए । जब श्री कृष्ण ने एकलव्य का बध किया तो उससे प्रशन्न हो उसे वरदान दिया । की तुम्हारी विद्या आदिकाल तक स्मरण की जाएगी और वर्तमान में देखा जाए तो वहीं कला ओलंपिक या अन्य स्तर पर देखी जाती है । जब तीरंदाजी में अंगूठे का उपयोग ना कर ४ उंगलीयो से बल प्रदान किया जाता है । और लक्ष्य साधा जाता है ।
इतिहास ने एकलव्य को अनदेखा कर शायद उसके साथ अन्याय किया था । पर वर्तमान ने जानते- न जानते हुए एकलव्य का सम्मान किया है ।
आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है।एकलव्य की धनुर्विद्या आज भारत से दूर सातो समुद्रोपार भी विख्यात हैं यही कारण है कि वर्तमान युग की तीरंदाजी के जनक निषाद राज एकलव्य थे । ना कि saxton temple pope  जो कि वर्ष 1875 से 1926 अमेरिका के एक डॉक्टर थे उन्हें मॉर्डन archery की तकनीकि का पितामह कहा जाता है । परन्तु वह लोग भारत के इतिहास से परिचित नहीं इस तकनीकि के उद्गम का इतिहास 100 वर्ष पुराना नहीं बल्कि यह तो 10000 वर्षों से भारत की तकनीकि थी । जो एक पक्षपात की घटना से प्रारंभ होकर इतिहास में कही लुप्त हो गई ।
धन्यवाद !!
स्त्रोत्र :-
विष्णु पुराण , वायु पुराण , रामायण , महाभारत
By:- Anurag Sharma
Email :- sharmaanu411@gmail.com

Saturday 18 April 2020

क्यो श्री राम ने सीता जी का त्याग किया ?


वैवस्वतमनु के पुत्र इक्ष्वाकु अयोध्या के राजा थे । पुराणों में कहा गया है कि वह प्रथम सूर्यवंशी राजा थे। इन्होंने ही अयोध्या में कोशल राज्य की स्थापना की थी। इनके सौ पुत्र थे। इनमें से पचास ने उत्तरापथ में और पचास ने दक्षिणापथ में राज्य किया।
सतयुग के प्रारंभ से लेकर त्रेता युग के अंत तक समस्त भारत वर्ष इक्ष्वाकु वंशजों के अधीन रहा ।
यही कारण था । जब श्री राम ने बाली का वध किया तब बाली ने पूछा कि आपने किस अधिकार से मेरा बध किया तब श्री राम ने अपने प्रतापी वंश का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह समस्त भूमि सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु की है ।
और में उसी प्रतापी वंश का वंशज हूं उसी अधिकार से मैने तुम्हारा बध किया ।
कहते हैं कि इक्ष्वाकु का जन्म मनु की छींक से हुआ था। इसीलिए इनका नाम इक्ष्वाकु पड़ा। इनके वंश में आगे चलकर मांधाता ,रघु, दिलीप, अज, दशरथ और राम जैसे प्रतापी राजा हुए।
रावण पर विजय प्राप्त उपरांत जब श्री राम अयोध्या आए तो भरत ने उन्हें उनका राज्य वापिस कर दिया ।
यह वही राज्य था जिसकी लालसा में भरत की मां कैकई ने श्री राम को 14 वर्षों का बनवास दिया था चूकी श्री राम अपने बनवास काल में थे तो भरत कार्यवाहक के रूप में राज्य के कार्यों को श्री राम की चरण पादुका रख संपादित किया करते थे ।
बनवास पूर्ण कर श्री राम जब अयोध्या आए तो उनका भव्य स्वागत हुआ वहीं श्री राम का राज्य अभिषेक भी अत्यंत आनंद से हुआ पर यहां एक विजित्र घटना देखने को मिलती है तुलसी दास जी लिखते है ।
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥११ ख॥
भावार्थ : श्री राम के बायीं ओर रूप और समस्त
गुणों से परिपूर्ण रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं।
उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं॥११ (ख)॥
इससे यह साबित होता है श्री राम का जानकी जी के साथ राज्य अभिषेक होना एक विरल घटना थी जो उस वंश या काल खंड में पहले कभी नहीं हुई जिसे देख कर सभी माताएं बहुत प्रसन्न हुई और जानकी जी को देख उन्होंने अपने जीवन को सफल समझा वहीं आगे चल कर गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते हैं ।
जनकसुता समेत रघुराई।
पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे।
नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥२॥
भावार्थ : श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ।
तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया।
आकाश में देवता और मुनि 'जय, हो, जय हो' ऐसी पुकार करने लगे॥२॥
यह जय घोष एक अपरिवर्तित असामान्य अवधारण के अंत का था ।
वह अवधारणा थी  समाज में महिलाओ का स्थान उस काल खंड में वीर महिलाएं भी अपने पति की दासी बन जीवन यापन करती थी । राज्यकीय कार्यों व रण नीतियों से उन्हे योग्य नहीं समझा जाता था । उन्हें केवल राज्य महल के आनंद में उलझा कर रखा जाता था ।
गोस्वामी तुलसी दास जी की रामायण के अनुसार कई बार संबोधन आता था वह पति को *नाथ* कह संबोधित करती थी । क्योंकि उस काल खंड में पत्नी युद्ध में प्राप्त विजय श्री की एक संधि हुआ करती थी ।
परन्तु श्री राम के राज्य संभालते ही इस परंपरा का अंत हुआ राम राज्य में महिलाओ को भी उतना ही सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती थी जितनी पुरुषों को गोस्वामी तुलसी दास जी भी राम राज्य का वर्णन करते हुए उत्तर कांड में लिखते है l
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥१॥
भावार्थ : 'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते।
सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥१॥
आर्थात राम राज्य में सभी वर्गो और जातियों में समानता थी ।
समानता के अधिकार को संवैधानिक तौर पर मान्यता भले आज़ाद भारत में मिली हो परन्तु इसके शिल्पकार श्री राम थे ।
आज के आज़ाद भारत में महिलाओं का स्थान पुरुषों से तनिक भी कम नहीं आज की महिलाएं सक्षम भी है और स्वलंभी भी ।
मेरे विचार में इस परम्परा के जनक श्री राम थे उन्होंने समाज में महिलाओं को अपना स्थान बताने के लिए जानकी जी को सदैव साथ रखा ।
आगे चल कर कई महिला प्रशासक हुई परन्तु यह सीता की के उस बलिदान से ही संभव हुआ ।
जो उन्होंने श्री राम की अज्ञा से त्याग और पुनः बनवास स्वीकार करना पड़ा ।
किसी असामान्य परंपरा यूंही नहीं लुप्त हो जाती श्री राम के राज्य में भी सीता जी के शासन नीति से प्रेरित होकर राज्य की महिलाएं अपने पर होने वाले अत्याचार के विरूद्ध उठ खड़ी होने लगी । अपने पुरुषार्थ पर अहंकार करने वाले कुछ तुच्छ पुरुषों को अपने एकछत्र पुरुषार्थ के पतन का बोध हो गया वह हिंसा पर उतारू होने लगे और इसे न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा और महिलाओ के प्रति हिंसक ही नहीं वह उन्हें कलंकित भी करने लगे ।
सीता जी भी उसी तुच्छ विचारधारा के कलंक का शिकार हुई । वह मर्यादा पुरुषोत्तम की भर्या ही नहीं राजा की सहभागी भी थी राजकीय कार्यों में उनकी सहभागिता हमेशा रहती थी यही कारण था कि उन्होंने राज्य में किसी प्रकार की अराजकता न फैले और महिलाओ पर अत्याचार ना बड़े को ध्यान में रख कर उस कलंक को सह ह्यदय स्वीकार किया ।
उनका उद्देश्य समाज यह यह संदेश भी देना था कि महिला अवला नहीं है ।
वह परिवार के पालन पोषण के लिए पूर्णता सक्षम भी है और समर्थ भी ।
उन्होंने श्री राम से त्याग उपरांत अपने पुत्रों को परम पराक्रमी और बुद्धिमान बनाया जो भविष्य में इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा बने वह थे लव , कुश ।।
प्रथ्वी पर भगवान का अवतरण किसी विशेष उद्देश्य के तहत ही होता है द्वापर युग के अंत में श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए कहा था
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
भावार्थ :  हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥
अत: अधर्म रूपी मानसिकता और अप्राकृतिक परंपराओं का दमन करना भी परमेश्वर के अवतरण का उद्देश्य होता है ।
कुछ बुद्धि जीवी श्री राम द्वारा सीता जी के त्याग को उनकी राज्य की महत्वकांक्षा से जोड़ कर देखते तो कुछ उनके चरित्र पर प्रश्न भी उठाते है ।
परन्तु परमात्मा के अवतरण के उद्देश्य केवल अधर्मियो का नाश करना नहीं अपितु अधर्म से जुड़ी उंन समस्त शाखाओं को तोड़ना भी होता है ।
जिनके बल पर हम किसी समर्थ राष्ट की कल्पना नहीं कर सकते ।
By :- Anurag Sharma
sharmaanu411@gmail.com

Monday 13 April 2020

How dare you "Corona"

UN climate change summit Sep 2019
एक 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता Greta Thunberg का वह संभोधन
"How dare You "
People are suffering. People are dying. Entire ecosystems are collapsing. We are in the beginning of a mass extinction, and all you can talk about is money and fairy tales of eternal economic growth. How dare you!
क्या How dare you का कोई कनेक्शन कोरोनों से
हो सकता है ?
Greta Thunberg के भवनात्मक प्रहार को समस्त देशों के प्रतिनिधियों ने कितना गंभीरता से लिया यह कह पाना कठिन है पर हम बड़े आसानी से यह सकते है ।
प्रकृति ने उसे गंभीरता से लिया और स्वयं रिबूट का फैसला लिया l
1- AQI में भारी गिरावट
2- ओजोन लेयर्स की रिपैयर
3- वातावरण में भारी गैसो की मात्रा में कमी
4- कैसे नदिया खुद व खुद स्वच्छ हो गई
यह 7 अरब लोगों की दुनिया जिस गति से चली जा रही थी ।
उसमे यह संभावना बहुत अधिक है कि हम प्रकृति के किसी क्रोध का कारण बनते । और इस क्रोध का कारण बने वो 1 करोड़ जानवर जिन्होंने ऑस्ट्रलिया में अपनी जान गवाई ।
कोरोना प्रकृति का वह निर्जीव तत्व है जिसने समूचे विश्व को अपने भय से घरों के अंदर बंद रहने को मजबूत कर दिया जिससे प्रकृति अपने आत्म रक्षण का कार्य सफलता से पूर्ण कर सके
इस 7 अरब की दुनिया में जन्हा 55 लाख लोग प्रति वर्ष मरते हो वंहा 1 लाख लोगों की मौत पर कोहराम मच जाना उस निर्जीव संक्रमण कोरोना का भय ही मात्र है ।
फैसला हमें करना है । आपको किन आंकड़ों में रहना पसंद है । आप प्रकृति के प्रहार से मरना चाहते है या संक्रमण से ।  शायद दोनों से नहीं । इसलिए बेहतर होगा प्रकृति को अपना काम करने दिया जाए यह अपने आप को पहले से बेहतर रहने के योग्य बना पाएगी ।
यह शताब्दीयो में घटित होने वाली घटनाएं है कभी हमें प्रकृति के अनुकूल होना पड़ा तो कभी प्रकृति हमारे अनुकूल हुई ।
समूचा विश्व आज लॉक डाउन है पर हमें इसकी आवश्यकताओ को समझना होगा इस लोकडाउन के खत्म होने के बाद भी समूचे विश्व को कुछ प्रतिबंध जारी रखना चाहिए ।
हमें संकल्प लेना चाहिए
1-बिना ठोस बजह के घरों से ना निकले ।
2- जल प्रदूषण पर नियंत्रण की आवश्यक है
3- शादी - समारोह या अन्य धार्मिक कार्यों में अनावश्यक जल एवं वायु प्रदूषण पर नियंत्रण
4-देश के सभी संस्थाओं में समय सारणी को इस प्रकार किया जाना चाहिए कि भीड़ ना दिखे
इस संकल्प की आवश्यकता हमें है हमने पाया हम हर परिस्थिति में जीवित रह सकते है अगर हां तो इन परिवर्तन को जीवन का अभूत अंग बनाया जाना चाहिए
By :- अनुराग शर्मा

Sunday 5 April 2020

मंथरा-एक कलंकित नारी

रामायण के अनेक पात्रो का वर्णन किया गया है जिसमे एक नाम मंथरा भी आता है वैसे तो यह एक कलंकित और अच्छा नहीं माना जाता लेकिन यही एक ऐसा पात्र है जिसके बिना पूरी रामायण अधूरी है और इसके बिना पूरी रामायण का अस्तिव नजर नहीं आता है| बाल्मीकि रामायण में इसके बारे में ज्यादा जिक्र नहीं किया गया शायद बाल्मीकि जी को इस पर ज्यादा प्रकाश डालने के जरुरत नहीं पड़ी रामायण इसका जिक्र राज्यभिषेक के समय में ही आता है | वैसे भी रामायण राम कि कथा है और उसमे अन्य पात्रो पर प्रकाश डालने का कोई औचित्य भी नहीं रह जाता| अब प्रश्न उठता है कि मंथरा कौन थी और वो आयी कहाँ से थी क्यों उसने राम को राजा बनने से रोका क्यों वह जिस राज महल की दासी की मर्यादा तोड़ रानी की माँ बनने कि कोशिश करती है और समाज में एक कलंकित नारी के रूप में ही याद की जाती है| क्या उसकी द्वारा ऐसा करना कोई मज़बूरी थी या उससे ऐसा करने के लिए किसी के द्वारा कहा गया था क्यों इस तरह तिरस्कृत जीवन जीने के लिए मज़बूरी हुई अत: अगर इस सम्बन्ध में वाल्मीकि रामायण की माने तो मंथरा एक गंधर्व कन्या (अप्सरा) थी जिसे इंद्र ने राम जी को वनवास हो इसके लिए ही पहले से ही कैकयी के पास भेज दिया था।
मंथरा का जन्म 
एक अन्य कथा के अनुसार मंथरा एक कुबड़ी औरत जो झुककर चलती थी वो जन्म से कुबड़ी नहीं थी| कहा जाता है कि वो पहले सामान्य तरीके से चल-फिर सकती थी | एक दिन उसने कुछ ऐसा पी लिया जिससे वो ज़िंदगी भर के लिए कुबड़ी रह गई. वो कौन-सा पेय पदार्थ था जिसे पीकर मंथरा की रीढ़ की हड्डी हमेशा के लिए झुक गई? कैकेयी के राजा अश्वपति का एक भाई था जिसका नाम वृहदश्व था| उसकी विशाल नैनों वाली एक बेटी थी जिसका नाम रेखा था, वह बचपन से ही कैकेयी की अच्छी सहेली थी| वह राजकन्या थी और बुद्धिमति थी, परंतु बाल्यावस्था में उसे एक बीमारी हुई| इस बीमारी में उसका पूरा शरीर पसीने से तर(भींग) हो जाता था और शरीर भींगने के साथ ही उसे बड़ी जोर की प्यास लगती थी| एक दिन प्यास से अत्यंत व्याकुल हो उसने इलायची, मिश्री और चंदन से बनी शरबत को पी लिया| उस शरबत के पीते ही वह त्रिदोष से ग्रस्त हो गई, उसके शरीर के सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया | उसके पिता तथा अन्य सगे-संबंधियों को लगा कि शायद उसकी मृत्यु हो जाएगी, तत्काल ही उसके पिता ने प्रसिद्ध चिकित्सकों से अपनी लाडली बेटी की चिकित्सा करवाई| इस उपचार का प्रभाव यह हुआ कि वह मृत्यु से बच गई, उसके शरीर के अन्य अंग काम करने लगे परंतु उसकी रीढ़ की हड्डी सदा के लिए टेढ़ी हो गई. इसके अलावा उसके दोनों कंधे और गर्दन झुक गए| इस कारण से उसका नाम कूबड़ी मंथरा पड़ गया | उसके इस शारीरिक दुर्गुण के कारण वह आजीवन अविवाहित रही. जब कैकेयी का विवाह हो गया तो वह अपने पिता की अनुमति से कैकेयी की अंगरक्षिका बनकर उसके राजमहल में रहने लगी|
मंथरा क्यो चाहती थी भरत राजा बने
एक बार नारद जी चक्रवर्ती महाराज दशरथ के पास आये और उनसे राजा कैकय (वर्तमान काकेशिया व काकेशस और किसी किसी के मत से काश्मीर) की लडकी कैकेयी की सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए बोले कि उसकी हस्तरेखाओ से सिद्ध होता है कि वह एक बड़े तपस्वी धर्मात्मा पुत्र की माता होगी, इससे विवाह कीजिये, पुत्र होगा । अब राजा को चिन्ता हुई कि उससे विवाह क्योंकर हो । धात्री योगिनी ने इसका बीड़ा उठाया । योगिनीने केकय देश में आ, कैकेयी का अपने ऊपर विश्वास जमा, उससे दशरथ महाराज के रूप, तेज, बल, ऐश्वर्य की प्रशंसा की और उसको रिझा लिया ।इस बात का समाचार जब राजा केकय तक पहुंच तब उन्होचे सभायें गर्याचार्य इत्यादि मुनियो से सम्मति लौ, गर्गजी महान् ज्योतिष के ज्ञात थे ,उन्होंने ने रावण के वध की भविष्य कथा उनको सुनायी। तब केकयराज ने गर्गजी के द्वारा चक्रवर्ती महाराज़ दशरथ के पास यह सन्देश (समाचार) भेजा कि यदि आप यह प्रतिज्ञा करे कि कैकेयी का पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होगा तो फलदान कर दिया जाय, राजा यह समाचार सून सोच मे पड गये, वशिष्ठ आदि को बुलाकर सम्मति ली । वशिष्ठजी ने सलाह विवाह कर लेने की दी यह कहते हुए कि अभी उसकी चिन्ता क्या करना , पुत्र धर्मज्ञ होगा इससे वह कोई अडचन न डालेगा। अतएव ब्याह हुआ और मंथरा दासी कैकेयी के साथ अवध आयी ।
मंथरा ने क्यो कैकई को राम के बनवास हेतु प्रेरित किया ?
लोमश ऋषि जो एक अनुभवी ऋषि कहे जाते थे वो एक बार श्रीराम वनवास के पश्चात् लोमश ऋषि अवध आये। तब लागो ने उनसे प्रश्न किया कि रामचन्द्र जी में योगी और मुनि रमण करते है, उनके राज्य में मन्थरा ने क्यों विघ्न डाला? उत्तर में उन्होने उसकी पूर्वजन्म की कथा सुनायी जो यों है । यह प्रह्लाद के पुत्र विरोचन की कन्या थी । जब विरोचन ने देवताओ को जीत लिया तब देवताओ ने विप्ररूप धरकार उससे दान में उसकी शेष आयु मांग ली । दैत्य बिना सरदार के हो गये । तब मन्थरा ने देत्योकी सहायता की, देवता हारकर इन्द्र के पास गये, उन्होने स्त्री का वध करने से इनकार किया। तब वे भगवान् विष्णु की शरण गये । वे शस्त्र धारण किये हुए समरभूमि में आये और इन्द्र को उसके मारने की आज्ञा देते हुए कहा कि पापिनी आततायिनीका वध उचित है । आज्ञा पाकर इन्द्र ने वज्र चलाया ।वह चिल्लाती हुई पृथ्वीपर आ गिरी, कूबड़ निक्ल आया । घरपर सबने उलटे उसी को बुरा -भला कहा । मंथरा पीडासे व्यथित क्रोध में भरी रोती बरबराती हुई, कि विष्णु पापात्मा हैं हमको इन्द्र से मरवाया, पहले भृगु की स्त्री को मारा, फिर वृंदा को छला, नृसिंह हो प्रह्लाद के पिता को छला; इसी तरह सदैव कपट व्यवहार करके देव-कष्ट को दूर किया करते हैं, उसी दशामें मर गयी । मरते समय विष्णु भगवान् और असुरो से (क्योंकि इन्होने समर में इसका साथ छोड दिया था और उनकी स्त्रियो ने उलटे इसी को चार बातें सुनायी थी ) बदला लेने की वासना रही; इससे वह दूसरे जन्म मे कैंकेयी की दासी हुई । उस पुराने वैर निकालने के लिये उसका जन्म हुआ, क्योकि उसने मरते समय मन में इच्छा करी थी कि भगवान् ऐसी जगह जन्म दें कि उनके समीप रहकर उनके कार्य मे विघ्न डालूँ । मंथरा नाम पडा क्योंकि यह पूरी मंथर है तीन जगह से टेढी है और मन्दबुद्धि है ।
वात्सल्य से भरी धाय के रूप में एक अभागिन माँ
मंथरा कैकेयी और राजा दशरथ के विवाह के दिन ऐसे खुश होती है जैसे उसकी खुद की बेटी की शादी हो कैकेयी के विवाह के दिन मंथरा के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे उस दिन वो इतनी खुश थी कि बयाँ नहीं कर सकती वैसे भी पुत्री के विवाह में ढेरों काम होते है, कैकेयी को हल्दी चन्दन का लेप लगा कर नहलाना था,फिर अंगराग लगाना था पुष्प सज्जा करनी थी जिससे वह अपूर्व सुंदरी लगे और राजा दशरथ अपनी अन्य रानियों को भूल जाएँ| और ये बात सोच कर और ज्यादा खुश थी कि महराज दशरथ की अन्य रानियाँ निस्संतान थीं इसलिए निश्चित था कि कैकेयी का पुत्र राजा और कैकेयी राजमाता बनेगी पर सारी प्रसन्नता  पर बेटी की विदाई की पीड़ा ह्रदय के टुकड़े कर रही थी| अंततः वह मंथरा की ही पुत्री तो थी अपनी नहीं तो क्या उसके उसका लालन पालन तो अपनी पुत्री जैसे ही किया था वैसे  भी राज परिवार की संताने तो माँ की नहीं धाय की गोद में ही पल कर बड़ी होती हैं| ये सोच सोच कर बहुत ही खुश थी कि आज उसकी पुत्री का विवाह है जिससे उसे अगाध प्रेम था जिस पर वह अपनी जान छिड़कती थी और उसकी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थी| कैकेयी के प्रति मंथरा का अगाध प्रेम देख कर महाराज अश्वपति ने मुख्य धाय के रूप में उसे रानी कैकेयी के साथ ही उसकी देख भाल के लिए अयोध्या भेज दिया| अवध की दोनों बड़ी रानियों ने कैकेयी का खुल कर स्वागत किया, यह देख कर मंथरा को बहुत प्रसन्नता हुई| लेकिन कुछ ही दिनों बाद मंथरा ने अनुभव किया कि महाराज निस्संदेह प्यार तो नयी रानी से करते हैं पर किसी समस्या पर विचार विमर्श  बड़ी रानियों से ही करते हैं अर्थात वो शायद कैकेयी को परिपक्व नहीं समझते  और जब वे अस्वस्थता या  किसी और कारण से  कष्ट में होते हैं तो उन्हें शांति कौशल्या के पास ही मिलती है अत ये सब सोच सोच कर मंथरा का अनुभवी मन अपनी स्वामिनी के भविष्य के लिए सशंकित होने लगा और इसके लिए उसने कैकेयी को समझाया कि केवल अपने पति की प्रेयसी बनने से काम नहीं चलता महाराज के दुःख सुख की संगिनी बनो नहीं तो बड़ी रानियों जैसी प्रतिष्ठा कभी नहीं पा सकोगी और पुरुष प्रकृति का भरोसा नहीं होता कल महल में चौथी रानी भी आ सकती है|
कैकेयी को महाराज के साथ युद्ध में भेजना
कहा जाता है कि एक बार दशरथ के पास देवों की और से देवासुर संग्राम में सम्मिलित होने का निमंत्रण आया मंथरा ने कैकेयी को राजा दशरथ के साथ युद्ध में जाने के लिए उकसाया ताकि वह वह राजा कि नजर में चढ़ जाये और वह उसे और रानियों से ज्यादा महत्व दे इस कर कैकेयीं राजा से युद्ध में जाने की हठ कर बैठी| और वैसे भी कैकेयी खुद भी एक वीरांगना थी और युद्ध कला में पारंगत थी| पर फिर भी दशरथ अपनी कोमलांगी पत्नी को युद्ध में नहीं ले जाना चाहते थे पर कैकेयी का कहना था कि पत्नी पति की सह धर्मिणी होती है| हठीली सहधर्मिणी के आगे उनकी एक न चली और कैकेयी युद्ध में चली गयी और वहां विषम स्थितियों में उसने अपने पति की प्राणों की रक्षा भी की| इस लिए महाराज कैकेयी के ऋणी हो गए इस तरह से यह मंथरा की पहली विजय थी वह सारे नगर में कहती फिरती थी कि अन्तःपुर का क्या है उसे तो कोई भी स्त्री सम्भाल सकती है पर मेरी स्वामिनी ने अपने रक्षक के प्राणों की रक्षा की| उस समय ये शब्द एक दासी के नहीं गर्विणी माता के थे |
मंथरा का पष्यपात और राम द्वारा स्वीकारना
आज चौदह वर्ष बाद द्वार पर आहट सुन कर मंथरा भयभीत हो उठी –अवश्य राम मुझे मृत्युदंड देने आये हैं उन्हें लगा हो गा कि इस पापिनी को जीने का अधिकार नहीं है | मुझे भी मृत्यु का भय नहीं है , मैंने मृत्यु से अधिक भयावह जीवन जिया है , बस मरने से पहले एक बार राम और सीता  की मोहक छवि देखना चाहती हूँ लक्ष्मण से क्षमा माँगना चाहती हूँ , तभी कुटी का द्वार खुला हवा का ताजा झोंका अन्दर आया और गंभीर पुरुष स्वर गूंजा “माँ अपने राम का प्रणाम स्वीकार करो ” लज्जित मंथरा संकोच से और सिमट गयी फिर नारी स्वर सुनाई दिया ” मुझे अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद दीजिये माँ “यह स्वर सीता का था | वर्षों से उपेक्षिता मंथरा राम सीता का स्नेह पा कर रो पड़ी उसका अपराधबोध आंसुओं के साथ बह गया और वह धाय माँ से माँ के पद पर प्रतिष्ठित हो गयी | जब हम किसी तथ्य को चाहे वह सत्य हो या असत्य या आंशिक सत्य बिना जांच किये स्वीकार कर लेते हैं तो वह हमारी ‘अवधारणा ‘ बन जाती है ।
Special thanks
:- फूल सिंह