देशभर में विजया दशमी का पर्व हर्ष एवं उल्लास
के साथ मनाया जाता है। इस दौरान लंकापति रावण का पुतला दहन होता है। जिसे आमतौर पर
रावण दहन के नाम से जाना जाता है। बच्चों में रावण दहन को लेकर अच्छा - खासा
उत्साह होता है। पर २० वि सदी में रावण दहन की परम्परा पर प्रश्न उठने लगे है l फिर
चाहे वो मध्यप्रदेश का मंदसौर (जन्हा लंका पति रावण को अपना दामाद माना जाता है )
या मध्यप्रदेश , छतीसगढ़ , महाराष्ट के आदिवासी जो लंका पति को अपना देवता मानते है
और भी समाज के कई वर्ग इसका खुल कर विरोध करते है l मुझे भी
यह घटना स्वाभाविक लगती है भारतीय परंपरा के अनुसार इस दिन श्री राम चन्द्र जी ने
लंका पति रावण को युद्ध में परास्त किया और उसका वध किया उसके बाद वह अपनी पत्नी
और भाई के साथ दीपावली पर अयोध्या 14
वर्षो के वनवास उपरांत वापिस आए l परन्तु
इन्ही परम्पराओ के साक्ष्य को लेकर प्रश्न उठते रहे है l गोस्वामी तुलसीदास जी
द्वारा रचित महाकाव्य “रामायण “ जिसमे श्री राम को एक नायक के रूप में प्रदर्शित
किया और जिसकी पटकथा श्री राम के चरित्र और संघर्ष के इर्द – गिर्द घुमती है l
शायद किसी लेखक के लिए यह आवश्यक होगा की जब वह किसी नायक के चरित्रावली लिख रहा
हो तो उसे एक खलनायक की आवश्यकता होगी l और फिर उस खलनायक को उससे अधिक बलशाली और
वैभव पूर्ण भी बताया जाना होगा l इस महाकाव्य में लंका पति रावण से बेहतर विकल्प शायद
दूसरा नही होता क्योकि उस काल में उससे अधिक बलशाली , प्रतापी , वैभव शाली राजा
कोई दूसरा नही था l वह उस समय का प्रकांड पंडित व् वेदों का ज्ञाता भी रहा होगा
क्योकि रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना
श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी। बाल्मीकि रामायण और तुलसीकतृ रामायण में इस कथा
का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी
महर्षि कम्बन की ‘इरामावतारम्’ मे यह कथा है।
लंका पति रावण को इस बात का बोध था की
श्री राम स्वयं परमात्मा के अवतार है और
तुलसी कृत रामायण के अनुसार उसने यह स्वीकार की
खर-दूषण मो सम बलवंता, तिनहीं को मारे बिनु
भगवंता।
सुर रंजन भंजन महि भारा, जो जगदीश लीन्ह अवतारा।
तो मैं जाई बैरि हठ करहूं, प्रभु सर प्राण तजे भव तरहूं।
अर्थ :- खर और दूषण मेरे सामान ही बलवान
थे उन्हें भगवान के अतिरिक्त कोई नही मार सकता , भगवान ने अवतार लिया है में उनसे
प्रेम कर नही बल्कि बैर कर अपने प्राण दूंगा l यानी माता सीता का अपहरण शायद यह सब
लंका पति रावण की एक सुनियोजित योजना का हिस्सा था l
कार्तिक मास की दशमी तिथि जिसे हम विजया
दशमी के नाम से जानते है जो समय उपरांत
दश्हेरा में परिवर्तित हो चुकी है और पौराणिक मान्यता का हवाला देते हुए इस
दिन भारत वर्ष में लंका पति रावण के विशाल पुतले को बुराई का प्रतीक मान कर सार्वजानिक रूप में दण्डित किया जाता है
l भारतीय संविधान के अनुसार भी यह एक विरोध का प्रतीक है , हमने रावण के अतिरिक्त
भी कई राजनेता या चर्चित्र लोगो के पुतलो को सार्वजानिक रूप से जलाया और अपना विरोध दर्ज किया होगा परन्तु बुराई को ढाल बना कर केवल लंका पति रावण
को सार्वजानिक रूप से जलाया जाना एक सामाजिक कुप्रथा प्रतीत होती है l क्योकि भारतीय
पौराणिकता के अनुसार पूर्व में कई और राक्षस या राजा हुए है , जिन्होंने शायद रावण से अधिक घिन्न और कुर्र कार्य
किये जैसे कंस जिसने कई वर्षो तक अपनी बहन और बहनोई को कारागार में बंद ही नही किया अपितु उसके 7
नवजात शिशुओ की हत्या की , वंही दुर्योधन
जिसने भरी सभा में अपनी भावी को अपमानित किया या महिसासुर और अत्यन्त्र क्रूर था
और एक पुरुष प्रधान राज्य की कामना में लाखो अवला महिलाओ का वध किया इन सभी घटनाओ
में एक बात सामान है की यह सभी घटनाए महिलाओ से जुडी है और रावण के द्वारा माता सीता का अपहरण भी महिलाओ से सम्बंधित है l परन्तु
स्वयं तुलसीदास जी एवं वाल्मिक जी ने अपनी रामायण में यह लिखा है की रावण ने माता
सीता का अपहरण जरुर किया परन्तु उनको छुआ तक नही तो फिर कैसे लंका पति रावण (कंस –दुर्योधन-
महिसासुर ) से अधिक बुराई वाला हो गया ,
यही वह प्रशन है जिसने समाज के एक विशेष वर्ग को सोचने पर मजबूर किया इसके
अतिरिक्त यह भी प्रश्न सार्वजानिक होना चाहिय की रावण की मृत्यु किस दिन होई थी ? इसको
लेकर तुलसी कृत रामयाण के अनुसार "राम – रावण युद्ध १४ दिनों तक चला "चैत्र शुक्ल चौदस जब आई मार्यो रावण जग
दुखदाई यानी जिसमे चेत्र मास
के शुक्ल पक्ष की चौदस को राम ने रावण को
मारा फिर क्यों रावण को कार्तिक मास की दशमी को यह कह कर जलाया जा रहा की राम ने
रावण को मार कर बुराइयों पर विजय पाई थी
शायद यह दादी – नानी से सुनी – सुनाई केवल वो कहानिया है जो अपनी अज्ञानता के कारण बच्चो की जिज्ञासा को पूरी नही कर पाती
थी क्योकि उन्हें बिना किसी प्रमाण के
परम्पराओ को निभाने की प्रथाओ को जिन्दा रखना
थी l
दूसरे लेखक श्री बाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण के युद्ध काण्ड संसर्ग के श्लोक
संख्या-124 के अनुसार
"पूर्ण चतुर्दशे वर्ष पंचम्या लक्ष्मन्नाग्र्ज भारद्वाज आश्रम प्राप्य ववनंदे नियतो मुनिम:" यानि चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को राजा राम वनवास के बाद भारद्वाज ऋषि की आश्रम में आकर रहते है, अगले दिन प्रातः यानि षष्टम तिथि को अयोध्या पहुँचते है। इस श्लोक को सही माने तो, दादी – नानी की कहानी कहीं न कहीं झूठी है, या इस कहानी के नीचे कुछ और ही दबा दिया गया है?
"पूर्ण चतुर्दशे वर्ष पंचम्या लक्ष्मन्नाग्र्ज भारद्वाज आश्रम प्राप्य ववनंदे नियतो मुनिम:" यानि चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को राजा राम वनवास के बाद भारद्वाज ऋषि की आश्रम में आकर रहते है, अगले दिन प्रातः यानि षष्टम तिथि को अयोध्या पहुँचते है। इस श्लोक को सही माने तो, दादी – नानी की कहानी कहीं न कहीं झूठी है, या इस कहानी के नीचे कुछ और ही दबा दिया गया है?
पिछले 4-5 दशकों से हमारी 2-4 पीढीयों को कक्षा दर कक्षा दिवाली का प्रस्ताव
रटवाया जा रहा है। जो पांच लाईनों से शूरू होकर 5 सौ लाईनों तक का बन जाता है। हमारे भोले-भॉले लोगों को
मूहजबानी याद करवा दिया गया है l आपकी जानकारी के लिए बता दूँ,
पूर्वज और परम्पराएँ कभी रटवाएँ नहीं जाते, वे सदैव याद रहते हैं।
विजया दशमी को लेकर एक मान्यता यह भी है की वैदिक काल से मध्यकालीन काल तक अखंड भारत में नव दुर्गा पर्वो के दौरान सभी राजा अपनी – अपनी सीमाओ का निरिक्षण और शक्ति प्रदर्शन किया करते थे उसी समय उनके राज्य महलो में रानीया उनकी विजय की मनोकामनाओ में माता रानी दुर्गा का पूजन किया करती थी नव दिनों तक फ्लैग मार्च करने के बाद दसवे दिन राजा अपने राज्य को दसो दिशाओ से सुरक्षित घोषित करते थे और दसवे दिन इसको विजय दशमी के रूप में मनाया जाता था l
विजया दशमी को लेकर एक मान्यता यह भी है की वैदिक काल से मध्यकालीन काल तक अखंड भारत में नव दुर्गा पर्वो के दौरान सभी राजा अपनी – अपनी सीमाओ का निरिक्षण और शक्ति प्रदर्शन किया करते थे उसी समय उनके राज्य महलो में रानीया उनकी विजय की मनोकामनाओ में माता रानी दुर्गा का पूजन किया करती थी नव दिनों तक फ्लैग मार्च करने के बाद दसवे दिन राजा अपने राज्य को दसो दिशाओ से सुरक्षित घोषित करते थे और दसवे दिन इसको विजय दशमी के रूप में मनाया जाता था l
परन्तु सन् 1980-90
के दशक यानि आन्नद
सागर की रामायण टीवी पर आने से पहले तक हमारे घरों में किसी राम या लछमी की फोटो
भी नहीं थी। हिन्दौस्तान में
पटाखे पहली आए ही सन 1900 के बाद हैं। इससे यह भी सिद्ध होता
है की दश्हेरा का त्यौहार शायद अंग्रेजो की देंन है जिसमे सामज के एक उच्य वर्ग को
निचा दिखाने की चेष्ठा की गयी है इसलिए शायद हमें अपने आप से प्रश्न करना चाहिए
क्या रावण को में ने मारा है या हमने l जब श्री राम से विश्वामित्र ने पूछा क्या
आपने रावण को मारा तो राम ने इस प्रश्न का उत्तर यही दिया था की “रावण को
में ने नही उसके में ने मारा है “
इसलिए रावण दहन से जुडी प्रथा मुझे एक
कुप्रथा लगती है आशा करता हूँ समय के साथ अन्य प्रथाओ की तरह इसका भी अंत अवश्य होगा क्योकि रावण
को राम ने एक बार मारा और उस अनिश्चरवादी विचारधारा के कार्यकर्ताओ ने जो शैव
संप्रदाय के लिंगायत एवं ब्राह्मण जन के
घोर विरोधी थे ने बार बार – हर साल मारा है “
By:-अनुराग शर्मा
sharmaanu411@gmail.com
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