Tuesday, 8 October 2019

दशग्रीव से रावण तक

मेरा यह लेख पढ़ने के पहले मेरे बारे यह निश्चित कर लीजिये कि...
मेरे आराध्य #श्री_राम ही हैं...🙏
निःसंदेह मैं #रावण को अपना आराध्य नहीं मान सकता...
निःसंदेह मैं #दशग्रीव को पूज्य नहीं मान सकता...
निसंदेह रावण पूज्यनीय नहीं है...परंतु रावण के गुणों को बताने पर आदमी को रावण भक्त मान लेना भी उतना ही गलत है...
हमारे आराध्य श्री राम ही हैं और श्री राम ही रहेंगे...
परंतु रावण ने वैदिक संस्कृति (तब सनातन धर्म नहीं था) को अमूल्य आविष्कार दिये हैं उन्हे भी पढ़ना जरूर चाहिये...और चर्चा भी करना चाहिये...

हां! रावण ने गलत राह चुनी मोक्ष पाने की...क्योंकि सनातन में मोक्ष पाने के तीन रास्ते माने गए हैं...
1:- #परोपकार, दान-पुण्य आदि कार्यों से...व्यक्ति अपने धन (अपने पूर्वजों से प्राप्त थाती/विरासत अथवा अपने द्वारा अर्जित पूण्जी) का उपयोग कर परोपकार के इतने कार्य करे कि #राजा_हरीशचंद्र की भांति एक उदाहरण प्रस्तुत कर सके...
परंतु रावण स्वाभाविक राजा होता तब वह इस राह से मोक्ष प्राप्त कर सकता था...उसे असुरों का राज्य मिला अपने #नाना_सुमाली के कारण...ना तो वह उसका अधिकारी था और ना ही उसने इसे विजय किया था...साथ ही लंका पर भी #ऋषि_पुलत्स्य ने (लंका को समृद्ध बनाने वाले रावण व कुबेर के पिता) #कुबेर को स्थापित किया था...
2:- #तपोबल से...यह राह शुद्ध बीज के मनुष्यों के लिये ही होती है...रावण एक #महर्षि और एक #असुरपुत्री के पुत्र होने के कारण इस श्रेणी में नहीं थे...
3:- किसी #महापुरुष (ईश्वर के किसी अवतार) के हाथों मृत्यु का वरण करना...यही राह रावण के लिये संभव थी...

यह लेख लिखने का कारण रावण का गुणगान नहीं है...अपितु यह बताना है कि...हम रावण जैसे पुत्र, भाई, पति या पिता की अपेक्षा क्यों नहीं कर सकते...परंतु फिर भी रावण ने सनातन धर्म को जो दिया है उसे सम्मान मिलना चाहिये...क्योंकि वह सम्मान उन्हे #देवों ने तथा #देवों_के_देव ने दिया है...

हमारे पूर्वजों ने यह भी कहा है...
विषादप्यमृतम ग्राह्यम बालादपि सुभाशितम...
अर्थात्
"विष से भी अमृत और बच्चों से भी  अच्छी बातें ग्रहण कर लेना चाहिये"...

जिस तरह हम रावण को आदर्श नहीं मान सकते...ठीक उसी तरह हम रावण के ज्ञान, शौर्य, पराक्रम तथा सामर्थ्य को भुला भी नहीं सकते...यदि आप रावण को उसके हिस्से का सम्मान नहीं दे सकते तो भूल जाएँ #शिव_शम्भू को भी...
क्योंकि महादेव ने ही उन्हे #शिव_ताण्डव_स्त्रोत्त की रचना पर अपने नाम #रुद्र का पर्यायवाची #रावण_नाम दिया था...
साथ ही यह वरदान भी दिया कि "मेरी आराधना के लिये तुम्हारे द्वारा रचित स्त्रोत व मंत्रों का विशेष महत्व होगा"...

वे लोग भूल जाएँ हमारे वेदों को #पढ़ना...जितना सुनें उसे ही वेद मान लें...क्योंकि #भोलेनाथ ने ही #दशानन को वेदों के #संगीतमय #भाष्य_रूपांतरण ( #लिपिबद्ध करने) का दायित्व सौंपकर उन्हे चिरसम्मान के योग्य बनाया था...उसके पहले तक वेद #श्रुति (गुरु द्वारा शिष्य को सुनाए जाने वाले) के रूप में ही उपलब्ध थे...
रावण ने ही ऋग्वेद को संगीतबद्ध भी किया था...

वे लोग भूल जाएं रावणकृत #शिव_महीम्न्_स्त्रोत को...

वे लोग भूल जाएं #ज्योतिष_शास्त्र को जिसे #शिव_जी से सामान्य मानव तक लाने का पुनीत कार्य रावण ने किया...
भूल जाएं #सामुद्रिक_शास्त्र (चेहरे तथा मुद्राओं से मानव स्वभाव को पढ़ना) को जिसका उद्भव रावण द्वारा किया गया...

भूल जाएं #यंत्र_विज्ञान #जल_संयोजन को...

भूल जाएं #रसायन_शास्त्र को क्योंकि रावण ने ही पारद (पारे) को बांधकर शिवलिंग बनाने तथा पारद से ही स्वर्ण बनाने की विधि खोजकर इसे ऊँचाई प्रदान की...

भूल जाएं #संगीत को, क्योंकि #रावण_वीणा (राजस्थान का रावण हत्था) जैसे बेहद सस्ता और आसानी से बनाया जाने वाल विलक्षण वाद्य रावण ने ही दिया...

भूल जाएं #अर्क को इस्तेमाल करना, क्योंकि #अर्क_प्रकाश ग्रंथ के माध्यम ये रावण ने ही अर्क बनाने की विधि हमें बताई है...

आज के धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों ने #अरुण_संहिता, #अंक_प्रकाश, #इंद्रजाल, #कुमार_तंत्र, #रावणीयम् आदि ग्रंथों का नाम तक नहीं सुना होगा...जिनका वैदिक शिक्षा ग्रहण करते समय अध्ययन करना अत्यावश्यक है...इन सभी के रचयिता रावण ही था...

ऐसे लोग कभी #नाड़ी_वैद्य (जो केवल आपकी नाड़ी के स्पंदन से आपकी बीमारी पकड़ लेते हैं) को भी अपनी बीमारी ना दिखाएँ...क्योंकि #नाड़ी_परीक्षा नामक ग्रंथ की रचना भी रावण ने ही की थी...

ज्योतिष में इंद्रजाल, रावणीयम, रावण संहिता जैसे ग्रंथ रावण ने लिखे...ज्योतिष में पारंगत होने के लिये इनका अध्ययन अत्यावष्यक है...

रावण ने ही हमें ज्योतिष, हस्तरेखा और सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञान अरुण संहिता ग्रंथ के माध्यम से दिया...

चिकित्सा विज्ञान को रावण ने दश #शतकात्मक,
अर्क बनाने की विधि #अर्क_प्रकाश,
#उड्डीशतंत्र,
नाड़ी से रोग पहचानने की कला #नाड़ी_परीक्षा,
पूरे परिवार के स्वास्थ के लिये #कुमार_तंत्र जैसे ग्रंथ दिये...(कुमार तंत्र में ही चेचक, छोटी माता, बड़ी माता जैसे रोगों के उपचार बताए गए हैं)..
रावण ने ही मंदोदरी को उदर (कोख) में पल रहे शिशु की देखभाल के नियम के रूप में #अंक_प्रकाश नामक ग्रंथ रचकर दिया...जिसमें गर्भस्थ शिशु को कष्ट रोग और काल से बचाने के उपाय बताए हैं...

इन सभी श्रेष्ठ कार्यों के बावजूद रावण पूज्य, आराध्य या आदर्श नहीं हो सकता...क्योंकि उनका मोक्ष पाने का तरीका गलत था...चाहे वो मजबूरी में ही हो...हम कभी रावण जैसा पुत्र, भाई, पति या पिता नहीं चाह सकते...यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है कि हम अपने जीवन में कितने ही सत्कर्म कर लें यदि जीवन की अंत ठीक नहीं रहा तो सबकुछ व्यर्थ है...

यहाँ मैं रावण को पूज्य मानकर सम्मान देने की बात नहीं कर रहा हूँ...कम ये कम हम रावण के चरित्र पर अध्ययन तो कर ही सकते हैं...उसे क्यों हेय मान रखा है हमने?

वाल्मीकि जी रामायण में रावण के बारे में लिखते हैं,
"अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युतिः।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता।।"
अर्थात्
रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं
" #रूप, #सौन्दर्य, #धैर्य, #कान्ति तथा #सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि रावण में #अधर्म ना होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन जाता"...

और यही मैं भी कहता हूँ कि रावण के अधर्म को छोड़कर बाकी बातें तो हम ग्रहण करते ही है...क्या हमें हनुमान जी की तरह उसके गुणों को नहीं मानना चाहिये?

जो लोग रावण के प्रतीकात्मक स्वरूप #पुतला_दहन का विरोध करते हैं वे भी गलत है...क्योंकि रावण ने ही यह कामना की थी कि जब जब #प्रभु_श्री_राम का नाम आए तब तब मेरा नाम भी लिया जाए...उन्होंने अपना #नाम_अमर करने के लिये ही रघुनंदन के हाथों मृत्यु का वरण करना सुनिश्चित किया था...इसलिये यदि कोई व्यक्ति रावण के चरित्र से प्रभावित भी है तब भी इसका विरोध करना गलत ही होगा...

हमें अपने इतिहास से सीखने के लिये जिस तरह नकारात्मक बातों को पढ़ना या जानना आवश्यक है उसी तरह हमें हमारी संस्कृति की रक्षा के लिये सभी सकारात्मक घटनाओं को भी समझना चाहिये...
इयलिये रावण को भले पूज्य ना माने, मानना भी नहीं चाहिये...परंतु उसके जीवन पर अध्ययन तो सभी को करना ही चाहिये...

इतिहास विषय की सर्वाधिक उपयोगिता यही है कि हम पूर्व में की गई गलतीयों को समझें और उन्हे दोहकाने से बचें...तथा पूर्व में अर्जित ज्ञान का अध्ययन कर उसे और आगे बढ़ाएं...

जय सनातन...
जय माँ भारती...

नि खि

Monday, 7 October 2019

रावण को में ने नही , हम ने मारा है


देशभर में विजया दशमी का पर्व हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दौरान लंकापति रावण का पुतला दहन होता है। जिसे आमतौर पर रावण दहन के नाम से जाना जाता है। बच्चों में रावण दहन को लेकर अच्छा - खासा उत्साह होता है।  पर २० वि सदी में  रावण दहन की परम्परा पर प्रश्न उठने लगे है l फिर चाहे वो मध्यप्रदेश का मंदसौर (जन्हा लंका पति रावण को अपना दामाद माना जाता है ) या मध्यप्रदेश , छतीसगढ़ , महाराष्ट के आदिवासी जो लंका पति को अपना देवता मानते है और भी  समाज के  कई वर्ग इसका खुल कर विरोध करते है l मुझे भी यह घटना स्वाभाविक लगती है भारतीय परंपरा के अनुसार इस दिन श्री राम चन्द्र जी ने लंका पति रावण को युद्ध में परास्त किया और उसका वध किया उसके बाद वह अपनी पत्नी और भाई के साथ  दीपावली पर अयोध्या 14 वर्षो के वनवास उपरांत वापिस आए l  परन्तु इन्ही परम्पराओ के साक्ष्य को लेकर प्रश्न उठते रहे है l गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य “रामायण “ जिसमे श्री राम को एक नायक के रूप में प्रदर्शित किया और जिसकी पटकथा श्री राम के चरित्र और संघर्ष के इर्द – गिर्द घुमती है l शायद किसी लेखक के लिए यह आवश्यक होगा की जब वह किसी नायक के चरित्रावली लिख रहा हो तो उसे एक खलनायक की आवश्यकता होगी l और फिर उस खलनायक को उससे अधिक बलशाली और वैभव पूर्ण भी बताया जाना होगा l इस महाकाव्य में लंका पति रावण से बेहतर विकल्प शायद दूसरा नही होता क्योकि उस काल में उससे अधिक बलशाली , प्रतापी , वैभव शाली राजा कोई दूसरा नही था l वह उस समय का प्रकांड पंडित व् वेदों का ज्ञाता भी रहा होगा क्योकि रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी। बाल्मीकि रामायण और तुलसीकतृ रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की इरामावतारम्मे यह कथा है।
लंका पति रावण को इस बात का बोध था की श्री राम स्वयं परमात्मा  के अवतार है और तुलसी कृत रामायण के अनुसार उसने यह स्वीकार की
खर-दूषण मो सम बलवंता, तिनहीं को मारे बिनु भगवंता।
सुर रंजन भंजन महि भारा, जो जगदीश लीन्ह अवतारा।
तो मैं जाई बैरि हठ करहूं, प्रभु सर प्राण तजे भव तरहूं।
अर्थ :- खर और दूषण मेरे सामान ही बलवान थे उन्हें भगवान के अतिरिक्त कोई नही मार सकता , भगवान ने अवतार लिया है में उनसे प्रेम कर नही बल्कि बैर कर अपने प्राण दूंगा l यानी माता सीता का अपहरण शायद यह सब लंका पति रावण की एक सुनियोजित योजना का हिस्सा था l
कार्तिक मास की दशमी तिथि जिसे हम विजया दशमी के नाम से जानते है जो समय उपरांत  दश्हेरा में परिवर्तित हो चुकी है और पौराणिक मान्यता का हवाला देते हुए इस दिन भारत वर्ष में लंका पति रावण के विशाल पुतले को बुराई का प्रतीक  मान कर सार्वजानिक रूप में दण्डित किया जाता है l भारतीय संविधान के अनुसार भी यह एक विरोध का प्रतीक है , हमने रावण के अतिरिक्त भी कई राजनेता या चर्चित्र लोगो के पुतलो को सार्वजानिक रूप से जलाया  और अपना विरोध दर्ज किया होगा  परन्तु बुराई को ढाल बना कर केवल लंका पति रावण को सार्वजानिक रूप से जलाया जाना एक सामाजिक कुप्रथा प्रतीत होती है l क्योकि भारतीय पौराणिकता के अनुसार पूर्व में कई और राक्षस या राजा हुए है ,  जिन्होंने शायद रावण से अधिक घिन्न और कुर्र कार्य किये जैसे कंस जिसने कई वर्षो तक अपनी बहन और बहनोई  को कारागार में बंद ही नही किया अपितु उसके 7 नवजात शिशुओ की हत्या की , वंही  दुर्योधन जिसने भरी सभा में अपनी भावी को अपमानित किया या महिसासुर और अत्यन्त्र क्रूर था और एक पुरुष प्रधान राज्य की कामना में लाखो अवला महिलाओ का वध किया इन सभी घटनाओ में एक बात सामान है की यह सभी घटनाए महिलाओ से जुडी है और रावण के द्वारा  माता सीता का अपहरण भी महिलाओ से सम्बंधित है l परन्तु स्वयं तुलसीदास जी एवं वाल्मिक जी ने अपनी रामायण में यह लिखा है की रावण ने माता सीता का अपहरण जरुर किया परन्तु उनको छुआ तक नही तो फिर कैसे लंका पति रावण (कंस –दुर्योधन- महिसासुर ) से  अधिक बुराई वाला हो गया , यही वह प्रशन है जिसने समाज के एक विशेष वर्ग को सोचने पर मजबूर किया इसके अतिरिक्त यह भी प्रश्न सार्वजानिक होना चाहिय की रावण की मृत्यु किस दिन होई थी ? इसको लेकर तुलसी कृत रामयाण के अनुसार "राम – रावण युद्ध १४ दिनों तक चला  "चैत्र शुक्ल चौदस जब आई मार्यो रावण जग दुखदाई  यानी जिसमे चेत्र मास के  शुक्ल पक्ष की चौदस को राम ने रावण को मारा फिर क्यों रावण को कार्तिक मास की दशमी को यह कह कर जलाया जा रहा की राम ने रावण को मार कर बुराइयों  पर विजय पाई थी शायद यह दादी – नानी से सुनी – सुनाई केवल वो कहानिया है जो अपनी अज्ञानता  के कारण बच्चो की जिज्ञासा को पूरी नही कर पाती थी क्योकि उन्हें  बिना किसी प्रमाण के परम्पराओ को निभाने की प्रथाओ को जिन्दा  रखना थी l
दूसरे लेखक श्री बाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण के युद्ध काण्ड संसर्ग के श्लोक संख्या-124 के अनुसार
"
पूर्ण चतुर्दशे वर्ष पंचम्या लक्ष्मन्नाग्र्ज भारद्वाज आश्रम प्राप्य ववनंदे नियतो मुनिम:" यानि चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को राजा राम वनवास के बाद भारद्वाज ऋषि की आश्रम में आकर रहते है, अगले दिन प्रातः यानि षष्टम तिथि को अयोध्या पहुँचते है। इस श्लोक को सही माने तो, दादी नानी की कहानी कहीं न कहीं झूठी है, या इस कहानी के नीचे कुछ और ही दबा दिया गया है?
 पिछले 4-5 दशकों से हमारी 2-4 पीढीयों को कक्षा दर कक्षा दिवाली का प्रस्ताव रटवाया जा रहा है। जो पांच लाईनों से शूरू होकर 5 सौ लाईनों तक का बन जाता है। हमारे भोले-भॉले लोगों को मूहजबानी याद करवा दिया गया है l आपकी जानकारी के लिए बता दूँ
पूर्वज और परम्पराएँ कभी रटवाएँ नहीं जाते, वे सदैव याद रहते हैं।
विजया दशमी को लेकर एक मान्यता यह भी है की वैदिक काल से  मध्यकालीन काल तक अखंड भारत में नव दुर्गा पर्वो के दौरान सभी राजा अपनी – अपनी सीमाओ का निरिक्षण और शक्ति प्रदर्शन किया करते थे उसी समय उनके राज्य महलो में रानीया उनकी विजय की मनोकामनाओ में माता रानी दुर्गा का पूजन किया करती थी नव दिनों तक फ्लैग मार्च करने के बाद दसवे दिन राजा अपने राज्य को दसो दिशाओ से सुरक्षित घोषित करते थे और दसवे दिन इसको विजय दशमी के रूप में मनाया जाता था l
परन्तु सन् 1980-90 के दशक यानि आन्नद सागर की रामायण टीवी पर आने से पहले तक हमारे घरों में किसी राम या लछमी की फोटो भी नहीं थी। हिन्दौस्तान में पटाखे पहली आए ही सन 1900 के बाद हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है की दश्हेरा का त्यौहार शायद अंग्रेजो की देंन है जिसमे सामज के एक उच्य वर्ग को निचा दिखाने की चेष्ठा की गयी है इसलिए शायद हमें अपने आप से प्रश्न करना चाहिए क्या रावण को में ने मारा है या हमने l जब श्री राम से विश्वामित्र ने पूछा क्या आपने रावण को मारा तो राम ने इस प्रश्न का उत्तर यही दिया था की रावण को में ने नही उसके में ने मारा है “
इसलिए रावण दहन से जुडी प्रथा मुझे एक कुप्रथा लगती है आशा करता हूँ समय के साथ अन्य प्रथाओ  की तरह इसका भी अंत अवश्य होगा क्योकि रावण को राम ने एक बार मारा और उस अनिश्चरवादी विचारधारा के कार्यकर्ताओ ने जो शैव संप्रदाय के लिंगायत एवं  ब्राह्मण जन के घोर विरोधी थे ने बार बार – हर साल मारा है “


By:-अनुराग शर्मा 

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